Wednesday, 30 January 2019

संत कबीर के दोहे | श्रेष्ठ हिंदी कवितायेँ

कबीर की साखियाँ

गुरु गोविंद दोऊ खडे, काके लागूँ पाँय।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविंद दिया बताय॥
 
सिष को ऐसा चाहिए, गुरु को सब कुछ देय।
गुरु को ऐसा चाहिए, सिष से कुछ नहिं लेय॥

कबिरा संगत साधु की, ज्यों गंधी की बास।
जो कुछ गंधी दे नहीं, तौ भी बास सुबास॥

साधु तो ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देइ उडाय॥

गुरु कुम्हार सिष कुंभ है गढ-गढ काढै खोट।
अंतर हाथ सहार दै, बाहर मारै चोट॥

कबिरा प्याला प्रेम का, अंतर लिया लगाय।
रोम रोम में रमि रहा, और अमल क्या खाय॥

जल में बसै कमोदिनी, चंदा बसै अकास।
जो है जाको भावता, सो ताही के पास॥

प्रीतम को पतियाँ लिखूँ, जो कहुँ होय बिदेस।
तन में मन में नैन में, ताको कहा संदेस॥

नैनन की करि कोठरी, पुतली पलँग बिछाय।
पलकों की चिक डारिकै, पिय को लिया रिझाय॥

गगन गरजि बरसे अमी, बादल गहिर गँभीर।
चहुँ दिसि दमकै दामिनी, भीजै दास कबीर॥

जाको राखै साइयाँ, मारि न सक्कै कोय।
बाल न बाँका करि सकै, जो जग बैरी होय॥

नैनों अंतर आव तूँ, नैन झाँपि तोहिं लेवँ।
ना मैं देखौं और को, ना तोहि देखन देवँ॥

लाली मेरे लाल की, जित देखों तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल॥

कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूँढै बन माहिं।
ऐसे घट में पीव है, दुनिया जानै नाहिं।
सिर राखे सिर जात है, सिर काटे सिर होय।
जैसे बाती दीप की, कटि उजियारा होय॥

जिन ढूँढा तिन पाइयाँ, गहिरे पानी पैठ।
जो बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ॥

बिरहिनि ओदी लाकडी, सपचे और धुँधुआय।
छूटि पडौं या बिरह से, जो सिगरी जरि जाय॥

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं।
प्रेम गली अति साँकरी, ता मैं दो न समाहिं॥

लिखा-लिखी की है नहीं, देखा देखी बात।
दुलहा दुलहिनि मिलि गए, फीकी परी बरात॥

रोडा होइ रहु बाटका, तजि आपा अभिमान।
लोभ मोह तृस्ना तजै, ताहि मिलै भगवान॥
 
-कबीरदास

Tuesday, 29 January 2019

ज्यादा पापी कौन ? - बेताल पच्चीसी - चौथी कहानी ! [Moral Hindi Stories]

Vikram-Betal Stories In Hindi - Fourth Story


भोगवती नाम की एक नगरी थी। उसमें राजा रूपसेन राज करता था। उसके पास चिन्तामणि नाम का एक तोता था। एक दिन राजा ने उससे पूछा, “हमारा ब्याह किसके साथ होगा?”


तोते ने कहा, “मगध देश के राजा की बेटी चन्द्रावती के साथ होगा।” राजा ने ज्योतिषी को बुलाकर पूछा तो उसने भी यही कहा।

उधर मगध देश की राज-कन्या के पास एक मैना थी। उसका नाम था मदन मञ्जरी। एक दिन राज-कन्या ने उससे पूछा कि मेरा विवाह किसके साथ होगा तो उसने कह दिया कि भोगवती नगर के राजा रूपसेन के साथ।

इसके बाद दोनों को विवाह हो गया। रानी के साथ उसकी मैना भी आ गयी। राजा-रानी ने तोता-मैना का ब्याह करके उन्हें एक पिंजड़े में रख दिया।

एक दिन की बात कि तोता-मैना में बहस हो गयी। मैना ने कहा, “आदमी बड़ा पापी, दग़ाबाज़ और अधर्मी होता है।” तोते ने कहा, “स्त्री झूठी, लालची और हत्यारी होती है।” दोनों का झगड़ा बढ़ गया तो राजा ने कहा, “क्या बात है, तुम आपस में लड़ते क्यों हो?”

मैना ने कहा, “महाराज, मर्द बड़े बुरे होते हैं।”

इसके बाद मैना ने एक कहानी सुनायी।

इलापुर नगर में महाधन नाम का एक सेठ रहता था। विवाह के बहुत दिनों के बाद उसके घर एक लड़का पैदा हुआ। सेठ ने उसका बड़ी अच्छी तरह से लालन-पालन किया, पर लड़का बड़ा होकर जुआ खेलने लगा। इस बीच सेठ मर गया। लड़के ने अपना सारा धन जुए में खो दिया। जब पास में कुछ न बचा तो वह नगर छोड़कर चन्द्रपुरी नामक नगरी में जा पहुँचा। वहाँ हेमगुप्त नाम का साहूकार रहता था। उसके पास जाकर उसने अपने पिता का परिचय दिया और कहा कि मैं जहाज़ लेकर सौदागरी करने गया था। माल बेचा, धन कमाया; लेकिन लौटते में समुद्र में ऐसा तूफ़ान आया कि जहाज़ डूब गया और मैं जैसे-तैसे बचकर यहाँ आ गया।

उस सेठ के एक लड़की थी रत्नावती। सेठ को बड़ी खुशी हुई कि घर बैठे इतना अच्छा लड़का मिल गया। उसने उस लड़के को अपने घर में रख लिया और कुछ दिन बाद अपनी लड़की से उसका ब्याह कर दिया। दोनों वहीं रहने लगे। अन्त में एक दिन वहाँ से बिदा हुए। सेठ ने बहुत-सा धन दिया और एक दासी को उनके साथ भेज दिया।

रास्ते में एक जंगल पड़ता था। वहाँ आकर लड़के ने स्त्री से कहा, “यहाँ बहुत डर है, तुम अपने गहने उतारकर मेरी कमर में बाँध दो, लड़की ने ऐसा ही किया। इसके बाद लड़के ने कहारों को धन देकर डोले को वापस करा दिया और दासी को मारकर कुएँ में डाल दिया। फिर स्त्री को भी कुएँ में पटककर आगे बढ़ गया।

स्त्री रोने लगी। एक मुसाफ़िर उधर जा रहा था। जंगल में रोने की आवाज़ सुनकर वह वहाँ आया उसे कुएँ से निकालकर उसके घर पहुँचा दिया। स्त्री ने घर जाकर माँ-बाप से कह दिया कि रास्ते में चोरों ने हमारे गहने छीन लिये और दासी को मारकर, मुझे कुएँ में ढकेलकर, भाग गये। बाप ने उसे ढाढस बँधाया और कहा कि तू चिन्ता मत कर। तेरा स्वामी जीवित होगा और किसी दिन आ जायेगा।

उधर वह लड़का जेवर लेकर शहर पहुँचा। उसे तो जुए की लत लगी थी। वह सारे गहने जुए में हार गया। उसकी बुरी हालत हुई तो वह यह बहाना बनाकर कि उसके लड़का हुआ है, फिर अपनी ससुराल चला। वहाँ पहुँचते ही सबसे पहले उसकी स्त्री मिली। वह बड़ी खुश हुई। उसने पति से कहा, “आप कोई चिन्ता न करें, मैंने यहाँ आकर दूसरी ही बात कही है।” जो कहा था, वह उसने बता दिया।

सेठ अपने जमाई से मिलकर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे बड़ी अच्छी तरह से घर में रखा।

कुछ दिन बाद एक रोज़ जब वह लड़की गहने पहने सो रही थी, उसने चुपचाप छुरी से उसे मार डाला और उसके गहने लेकर चम्पत हो गया।

मैना बोली, “महाराज, यह सब मैंने अपनी आँखों से देखा। ऐसा पापी होता है आदमी!”

राजा ने तोते से कहा, “अब तुम बताओ कि स्त्री क्यों बुरी होती है?”

इस पर तोते ने यह कहानी सुनायी।

कंचनपुर में सागरदत्त नाम का एक सेठ रहता था। उसके श्रीदत्त नाम का एक लड़का था। वहाँ से कुछ दूर पर एक और नगर था श्रीविजयपुर। उसमें सोमदत्त नाम का सेठ रहता था। उसके एक लड़की थी वह श्रीदत्त को ब्याही थी। ब्याह के बाद श्रीदत्त व्यापार करने परदेस चला गया। बारह बरस हो गये और वह न आया तो जयश्री व्याकुल होने लगी। एक दिन वह अपनी अटारी पर खड़ी थी कि एक आदमी उसे दिखाई दिया। उसे देखते ही वह उस पर मोहित हो गयी। उसने उसे अपनी सखी के घर बुलवा लिया। रात होते ही वह उस सखी के घर चली जाती और रात-भर वहाँ रहकर दिन निकलने से पहले ही लौट आती। इस तरह बहुत दिन बीत गये।

इस बीच एक दिन उसका पति परदेस से लौट आया। स्त्री बड़ी दु:खी हुईं अब वह क्या करे? पति हारा-थका था। जल्दी ही उसकी आँख लग गई और स्त्री उठकर अपने दोस्त के पास चल दी।

रास्ते में एक चोर खड़ा था। वह देखने लगा कि स्त्री कहाँ जाती है। धीरे-धीरे वह सहेली के मकान पर पहुँची। चोर भी पीछे-पीछे गया। संयोग से उस आदमी को साँप ने काट लिया था ओर वह मरा पड़ा था। स्त्री ने समझा सो रहा है। वहीं आँगन में पीपल का एक पेड़ था, जिस पर एक पिशाच बैठा यह लीला देख रहा था। उसने उस आदमी के शरीर में प्रवेश करके उस स्त्री की नाक काट ली औरा फिर उस आदमी की देह से निकलकर पेड़ पर जा बैठा। स्त्री रोती हुई अपनी सहेली के पास गयी। सहेली ने कहा कि तुम अपने पति के पास जाओ ओर वहाँ बैठकर रोने लगो। कोई पूछे तो कह देना कि पति ने नाक काट ली है।

उसने ऐसा ही किया। उसका रोना सुनकर लोग इकट्ठे हो गये। आदमी जाग उठा। उसे सारा हाल मालूम हुआ तो वह बड़ा दु:खी हुआ। लड़की के बाप ने कोतवाल को ख़बर दे दी। कोतवाल उन सबको राजा के पास ले गया। लड़की की हालत देखकर राजा को बड़ा गुस्सा आया। उसने कहा, “इस आदमी को सूली पर लटका दो।”

वह चोर वहाँ खड़ा था। जब उसने देखा कि एक बेक़सूर आदमी को सूली पर लटकाया जा रहा है तो उसने राजा के सामने जाकर सब हाल सच-सच बता दिया। बोला, “अगर मेरी बात का विश्वास न हो तो जाकर देख लीजिए, उस आदमी के मुँह में स्त्री की नाक है।”

राजा ने दिखवाया तो बात सच निकली।

इतना कहकर तोता बोला, “हे राजा! स्त्रियाँ ऐसी होती हैं! राजा ने उस स्त्री का सिर मुँडवाकर, गधे पर चढ़ाकर, नगर में घुमवाया और शहर से बाहर छुड़वा दिया।”

यह कहानी सुनाकर बेताल बोला, “राजा, बताओ कि दोनों में ज्यादा पापी कौन है?”

राजा ने कहा, “स्त्री।”

बेताल ने पूछा, “कैसे?”

राजा ने कहा, “मर्द कैसा ही दुष्ट हो, उसे धर्म का थोड़ा-बहुत विचार रहता ही है। स्त्री को नहीं रहता। इसलिए वह अधिक पापिन है।”

राजा के इतना कहते ही बेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा लौटकर गया और उसे पकड़कर लाया। रास्ते में बेताल ने पाँचवीं कहानी सुनायी।

Sunday, 27 January 2019

पंचतंत्र की कहानी- कौआ और उल्लू (Panchtantra Story- The Owl And The Crow)

 कौआ और उल्लू 

Panchtantra Hindi Short Story
बहुत समय पहले की बात हैं, एक जंगल में विशाल बरगद का पेड़ कौओं की राजधानी थी. हजारों कौए उस पर रहते थे. उसी पेड़ पर कौओं का राजा मेघवर्ण भी रहता था. बरगद के पेड़ के पास ही एक पहाड़ी थी, जिसमें कई गुफाएं थीं. उन गुफाओं में उल्लू रहते थे, उनका राजा अरिमर्दन था. अरिमर्दन बहुत पराक्रमी था. कौओं को तो उसने उल्लुओं का दुश्मन नम्बर एक घोषित कर रखा था. उसे कौओं से इतनी नफरत थी कि किसी कौए को मारे बिना वह भोजन नहीं करता था.
जब बहुत ज़्यादा कौए मारे जाने लगे तो उनके राजा मेघवर्ण को बहुत चिंता हुई. उसने इस समस्या पर विचार करने के लिए सभा बुलाई.
मेघवर्ण बोला, “मेरे प्यारे कौओं, आपको तो पता ही हैं कि उल्लुओं के आक्रमण के कारण हमारा जीवन असुरक्षित हो गया है. हमारा शत्रु शक्तिशाली हैं और अहंकारी भी. हम पर रात को हमले किए जाते हैं. हम रात को देख नहीं पाते. हम दिन में जवाबी हमला नहीं कर पाते, क्योंकि वे गुफा के अंधेरे में सुरक्षित बैठे रहते है.”
फिर मेघवर्ण ने स्याने और बुद्धिमान कौओं से अपने सुझाव देने को कहा.
एक डरपोक कौआ बोला, “हमें उल्लुओं से समझौता कर लेना चाहिए. वह जो शर्त रखें, हमें स्वीकार कर लेना चाहिए. अपने से ताकतवर दुश्मन से पिटते रहने का भला क्या मतलब है?”
बहुत-से कौओं ने इस बात का विरोध किया. एक गर्म दिमाग़ का कौआ चीखा, “हमें उन दुष्टों से बात नहीं करनी चाहिए. सब उठो और उन पर आक्रमण कर दो.”
एक निराशावादी कौआ बोला, “शत्रु बलवान है हमें यह स्थान छोडकर चले जाना चाहिए.”
स्याने कौए ने सलाह दी, “अपना घर छोड़ना ठीक नहीं होगा. हम यहां से गए तो बिल्कुल ही टूट जाएंगे. हमें यहीं रहकर और पक्षियों से मदद लेनी चाहिए.”
कौओं में सबसे चतुर व बुद्धिमान स्थिरजीवी नामक कौआ था, जो चुपचाप बैठा सबकी दलीलें सुन रहा था. राजा मेघवर्ण उसकी ओर मुड़े, “महाशय, आप चुप हैं, मैं आपकी राय जानना चाहता हूं.”
स्थिरजीवी बोला, “महाराज, शत्रु अधिक शक्तिशाली हो तो छलनीति से काम लेना चाहिए.”
“कैसी छलनीति? ज़रा साफ़-साफ़ बताइए,
स्थिरजीवी.” राजा ने कहा.
स्थिरजीवी बोला, “आप मुझे भला-बुरा कहिए और मुझ पर जानलेवा हमला कीजिए.”
मेघवर्ण चौंका, “यह आप क्या कह रहे हैं स्थिरजीवी?”
स्थिरजीवी राजा मेघवर्ण वाली डाली पर जाकर कान में बोला, “छलनीति के लिए हमें यह नाटक करना पडेगा. हमारे आसपास के पेड़ों पर उल्लू जासूस हमारी इस सभा की सारी कार्यवाही देख रहे हैं. उन्हे दिखाकर हमें फूट और झगड़े का नाटक करना होगा. इसके बाद आप सारे कौओं को लेकर ॠष्यमूक पर्वत पर जाकर मेरी प्रतीक्षा करें. मैं उल्लुओं के दल में शामिल होकर उनके विनाश का सामान जुटाऊंगा. घर का भेदी बनकर उनकी लंका ढाएगा.”
फिर नाटक शुरू हुआ. स्थिरजीवी चिल्लाकर बोला, “मैं जैसा कहता हूं, वैसा कर राजा के बच्चे. क्यों हमें मरवाने पर तुला हैं?”
मेघवर्ण चीख उठा, “गद्दार, राजा से ऐसी बदतमीजी से बोलने की तेरी हिम्मत कैसे हुई?” कई कौए एकसाथ चिल्ला उठे, “इस गद्दार को मार दो.”
राजा मेघवर्ण ने अपने पंख से स्थिरजीवी को ज़ोरदार झापड़ मारकर तने से गिरा दिया और घोषणा की, “मैं गद्दार स्थिरजीवी को कौआ समाज से निकाल रहा हूं. अब से कोई कौआ इस नीच से संबध नहीं रखेगा.”
आसपास के पेड़ों पर छिपे बैठे उल्लू जासूसों की आंखे चमक उठी. उल्लुओं के राजा को जासूसों ने सूचना दी कि कौओं में फूट पड़ गई है. मार-पीट और गाली-गलौच हो रही है. इतना सुनते ही उल्लुओं के सेनापति ने राजा से कहा, “महाराज, यही मौक़ा है कौओं पर आक्रमण करने का. इस समय हम उन्हें आसानी से हरा देंगे.”
उल्लुओं के राजा अरिमर्दन को सेनापति की बात सही लगी. उसने तुरंत आक्रमण का आदेश दे दिया. बस फिर क्या था उल्लुओं की सेना बरगद के पेड़ पर आक्रमण करने चल पड़ी, परंतु वहां एक भी कौआ नहीं मिला.
मिलता भी कैसे? योजना के अनुसार मेघवर्ण सारे कौओं को लेकर ॠष्यमूक पर्वत की ओर कूच कर गया था. पेड़ ख़ाली पाकर उल्लुओं के राजा ने थूका, “कौए हमारा सामना करने की बजाय भाग गए. ऐसे कायरों पर हज़ार थू.” सारे उल्लू “हू-हू” की आवाज़ निकालकर अपनी जीत की घोषणा करने लगे. नीचे झाड़ियों में गिरा पड़ा स्थिरजीवी कौआ यह सब देख रहा था. स्थिरजीवी ने कां-कां की आवाज़ निकाली. उसे देखकर जासूस उल्लू बोला, “अरे, यह तो वही कौआ है, जिसे इनका राजा धक्का देकर गिरा रहा था और अपमानित कर रहा था.”
उल्लुओं का राजा भी आया. उसने पूछा, “तुम्हारी यह दुर्दशा कैसे हुई?” स्थिरजीवी बोला, “मैं राजा मेघवर्ण का नीतिमंत्री था. मैंने उनको नेक सलाह दी कि उल्लुओं का नेतृत्व इस समय एक पराक्रमी राजा कर रहे हैं, इसलिए हमें उल्लुओं की अधीनता स्वीकार कर लेनी चाहिए. मेरी बात सुनकर मेघवर्ण क्रोधित हो गया और मुझे फटकार कर कौओं की जाति से बाहर कर दिया. मुझे अपनी शरण में ले लीजिए.”
उल्लुओं का राजा अरिमर्दन सोच में पड़ गया. उसके स्याने नीति सलाहकार ने कान में कहा, “राजन, शत्रु की बात का विश्‍वास नहीं करना चाहिए. यह हमारा शत्रु है. इसे मार दो.” एक चापलूस मंत्री बोला, “नहीं महाराज! इस कौए को अपने साथ मिलाने से बहुत लाभ होगा. यह कौओं के घर के भेद हमें बताएगा.”
राजा को भी स्थिरजीवी को अपने साथ मिलाने में लाभ नज़र आया और उल्लू स्थिरजीवी कौए को अपने साथ ले गए. वहां अरिमर्दन ने उल्लू सेवकों से कहा, “स्थिरजीवी को गुफा के शाही मेहमान कक्ष में ठहराओ, इन्हें कोई कष्ट नहीं होना चाहिए.”
स्थिरजीवी हाथ जोड़कर बोला, “महाराज, आपने मुझे शरण दी, यही बहुत है. मुझे अपनी शाही गुफा के बाहर एक पत्थर पर सेवक की तरह ही रहने दीजिए. वहां बैठकर आपके गुण गाते रहने की ही मेरी इच्छा है.” इस प्रकार स्थिरजीवी शाही गुफा के बाहर डेरा जमाकर बैठ गया.
गुफा में नीति सलाहकार ने राजा से फिर से कहा,“महाराज! शत्रु पर विश्‍वास मत करो. उसे अपने घर में स्थान देना तो आत्महत्या करने समान है.” अरिमर्दन ने उसे क्रोध से देखा, “तुम मुझे ज़्यादा नीति समझाने की कोशिश मत करो. चाहो तो तुम यहां से जा सकते हो.” नीति सलाहकार उल्लू अपने दो-तीन मित्रों के साथ वहां से सदा के लिए यह कहता हुआ चला गया, “विनाशकाले विपरीत बुद्धि.”
कुछ दिनों बाद स्थिरजीवी लकड़ियां लाकर गुफा के द्वार के पास रखने लगा, “सरकार, सर्दियां आनेवाली हैं. मैं लकड़ियों की झोपड़ी बनाना चाहता हूं ताकि ठंड से बचाव हो.” धीरे-धीरे लकड़ियों का काफ़ी ढेर जमा हो गया. एक दिन जब सारे उल्लू सो रहे थे, तो स्थिरजीवी वहां से उड़कर सीधे ॠष्यमूक पर्वत पहुंचा, जहां मेघवर्ण और अन्य कौए उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे. स्थिरजीवी ने कहा, “अब आप सब निकट के जंगल से जहां आग लगी है एक-एक जलती लकड़ी चोंच में उठाकर मेरे पीछे आइए.”
कौओं की सेना चोंच में जलती लकड़ियां पकड़ स्थिरजीवी के साथ उल्लुओं की गुफाओं में आ पहुंची. स्थिरजीवी द्वारा ढेर लगाई लकड़ियों में आग लगा दी गई. सभी उल्लू जलने या दम घुटने से मर गए. राजा मेघवर्ण ने स्थिरजीवी को कौआ रत्न की उपाधि दी.
सीख- शत्रु को अपने घर में पनाह देना अपने ही विनाश का सामान जुटाना है.

Tuesday, 22 January 2019

पुण्य किसका ? - बेताल पच्चीसी - तीसरी कहानी | [Hindi Stories]

सबसे ज्यादा पुण्य किसका ? - Vikram Betal Hindi Stories


वर्धमान नगर में रूपसेन नाम का राजा राज करता था। एक दिन उसके यहाँ वीरवर नाम का एक राजपूत नौकरी के लिए आया। राजा ने उससे पूछा कि उसे ख़र्च के लिए क्या चाहिए तो उसने जवाब दिया, हज़ार तोले सोना। सुनकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा ने पूछा, “तुम्हारे साथ कौन-कौन है?” उसने जवाब दिया, “मेरी स्त्री, बेटा और बेटी।” राजा को और भी अचम्भा हुआ। आख़िर चार जने इतने धन का क्या करेंगे? फिर भी उसने उसकी बात मान ली।



उस दिन से वीरवर रोज हज़ार तोले सोना भण्डारी से लेकर अपने घर आता। उसमें से आधा ब्राह्मणों में बाँट देता, बाकी के दो हिस्से करके एक मेहमानों, वैरागियों और संन्यासियों को देता और दूसरे से भोजन बनवाकर पहले ग़रीबों को खिलाता, उसके बाद जो बचता, उसे स्त्री-बच्चों को खिलाता, आप खाता। काम यह था कि शाम होते ही ढाल-तलवार लेकर राज के पलंग की चौकीदारी करता। राजा को जब कभी रात को ज़रूरत होती, वह हाज़िर रहता।



एक आधी रात के समय राजा को मरघट की ओर से किसी के रोने की आवाज़ आयी। उसने वीरवर को पुकारा तो वह आ गया। राजा ने कहा, “जाओ, पता लगाकर आओ कि इतनी रात गये यह कौन रो रहा है ओर क्यों रो रहा है?”



वीरवर तत्काल वहाँ से चल दिया। मरघट में जाकर देखता क्या है कि सिर से पाँव तक एक स्त्री गहनों से लदी कभी नाचती है, कभी कूदती है और सिर पीट-पीटकर रोती है। लेकिन उसकी आँखों से एक बूँद आँसू की नहीं निकलती। वीरवर ने पूछा, “तुम कौन हो? क्यों रोती हो?”

उसने कहा, “मैं राज-लक्ष्मी हूँ। रोती इसलिए हूँ कि राजा विक्रम के घर में खोटे काम होते हैं, इसलिए वहाँ दरिद्रता का डेरा पड़ने वाला है। मैं वहाँ से चली जाऊँगी और राजा दु:खी होकर एक महीने में मर जायेगा।”

सुनकर वीरवर ने पूछा, “इससे बचने का कोई उपाय है!”

स्त्री बोली, “हाँ, है। यहाँ से पूरब में एक योजन पर एक देवी का मन्दिर है। अगर तुम उस देवी पर अपने बेटे का शीश चढ़ा दो तो विपदा टल सकती है। फिर राजा सौ बरस तक बेखटके राज करेगा।”

वीरवर घर आया और अपनी स्त्री को जगाकर सब हाल कहा। स्त्री ने बेटे को जगाया, बेटी भी जाग पड़ी। जब बालक ने बात सुनी तो वह खुश होकर बोला, “आप मेरा शीश काटकर ज़रूर चढ़ा दें। एक तो आपकी आज्ञा, दूसरे स्वामी का काम, तीसरे यह देह देवता पर चढ़े, इससे बढ़कर बात और क्या होगी! आप जल्दी करें।”

वीरवर ने अपनी स्त्री से कहा, “अब तुम बताओ।”

स्त्री बोली, “स्त्री का धर्म पति की सेवा करने में है।”

निदान, चारों जने देवी के मन्दिर में पहुँचे। वीरवर ने हाथ जोड़कर कहा, “हे देवी, मैं अपने बेटे की बलि देता हूँ। मेरे राजा की सौ बरस की उम्र हो।”

इतना कहकर उसने इतने ज़ोर से खांडा मारा कि लड़के का शीश धड़ से अलग हो गया। भाई का यह हाल देख कर बहन ने भी खांडे से अपना सिर अलग कर डाला। बेटा-बेटी चले गये तो दु:खी माँ ने भी उन्हीं का रास्ता पकड़ा और अपनी गर्दन काट दी। वीरवर ने सोचा कि घर में कोई नहीं रहा तो मैं ही जीकर क्या करूँगा। उसने भी अपना सिर काट डाला। राजा को जब यह मालूम हुआ तो वह वहाँ आया। उसे बड़ा दु:ख हुआ कि उसके लिए चार प्राणियों की जान चली गयी। वह सोचने लगा कि ऐसा राज करने से धिक्कार है! यह सोच उसने तलवार उठा ली और जैसे ही अपना सिर काटने को हुआ कि देवी ने प्रकट होकर उसका हाथ पकड़ लिया। बोली, “राजन्, मैं तेरे साहस से प्रसन्न हूँ। तू जो वर माँगेगा, सो दूँगी।”

राजा ने कहा, “देवी, तुम प्रसन्न हो तो इन चारों को जिला दो।”

देवी ने अमृत छिड़ककर उन चारों को फिर से जिला दिया।

इतना कहकर बेताल बोला, राजा, बताओ, सबसे ज्यादा पुण्य किसका हुआ?”

राजा बोला, “राजा का।”

बेताल ने पूछा, “क्यों?”

राजा ने कहा, “इसलिए कि स्वामी के लिए चाकर का प्राण देना धर्म है; लेकिन चाकर के लिए राजा का राजपाट को छोड़, जान को तिनके के समान समझकर देने को तैयार हो जाना बहुत बड़ी बात है।”

यह सुन बेताल ग़ायब हो गया और पेड़ पर जा लटका। बेचारा राजा दौड़ा-दौड़ा वहाँ पहुँचा ओर उसे फिर पकड़कर लाया तो बोताल ने चौथी कहानी कही।

Sunday, 20 January 2019

पंचतंत्र की कहानी- चतुर खरगोश और शेर (Panchtantra Story- The Cunning Hare And The Lion)

चतुर खरगोश और शेर

Hindi Short Story
किसी घने जंगल में एक बहुत बड़ा शेर रहता था. वह रोज़ शिकार पर निकलता और एक-दो नहीं, कई-कई जानवरों का काम तमाम देता. जंगल के जानवर डरने लगे कि अगर शेर इसी तरह शिकार करता रहा, तो एक दिन ऐसा आएगा कि जंगल में कोई जानवर ही नहीं बचेगा.
सारे जंगल में सनसनी फैल गई. शेर को रोकने के लिये कोई न कोई उपाय करना ज़रूरी था. एक दिन जंगल के सारे जानवर इकट्ठा हुए और इस प्रश्‍न पर विचार करने लगे. अंत में उन्होंने तय किया कि वे सब शेर के पास जाकर उनसे इस बारे में बात करेंगे. दूसरे दिन जानवरों का एक दल शेर के पास पहुंचा. उनको अपनी ओर आते देख शेर घबरा गया और उसने गरजकर पूछा, “क्या बात है? तुम सब यहां क्यों आए हो?”
जानवर दल के नेता ने कहा, “महाराज, हम आपके पास निवेदन करने आए हैं. आप राजा हैं और हम आपकी प्रजा. जब आप शिकार करने निकलते हैं, तो बहुत जानवर मार डालते हैं. आप सबको खा भी नहीं पाते. इस तरह से हमारी संख्या कम होती जा रही है. अगर ऐसा ही चलता रहा, तो कुछ ही दिनों में जंगल में आपके सिवाय और कोई नहीं बचेगा. प्रजा के बिना राजा भी कैसे रह सकता है? यदि हम सभी मर जाएंगे, तो आप भी राजा नहीं रहेंगे. हम चाहते हैं कि आप सदा हमारे राजा बने रहें. आपसे हमारी विनती है कि आप अपने घर पर ही रहा करें. हम हर रोज़ स्वयं आपके खाने के लिए एक जानवर भेज दिया करेंगे. इस तरह से राजा और प्रजा दोनो ही चैन से रह सकेंगे.” शेर को लगा कि जानवरों की बात में सच्चाई है. उसने पलभर सोचा फिर बोला, “अच्छी बात है, मैं तुम्हारे सुझाव को मान लेता हूं, लेकिन याद रखना, अगर किसी भी दिन तुमने मेरे खाने के लिए पूरा भोजन नहीं भेजा, तो मैं जितने जानवर चाहूंगा, मार डालूंगा.” जानवरों के पास और कोई चारा तो था नहीं, इसलिए उन्होंने शेर की शर्त मान ली और अपने-अपने घर चले गए.
उस दिन से हर रोज़ शेर के खाने के लिये एक जानवर भेजा जाने लगा. इसके लिये जंगल में रहने वाले सब जानवरों में से एक-एक जानवर, बारी-बारी से चुना जाता था. कुछ दिन बाद खरगोशों की बारी भी आ गई. शेर के भोजन के लिए एक नन्हें से खरगोश को चुना गया. वह खरगोश जितना छोटा था, उतना ही चतुर भी था. उसने सोचा, बेकार में शेर के हाथों मरना मूर्खता है. अपनी जान बचाने का कोई न कोई उपाय अवश्य करना चाहिए, और हो सके तो कोई ऐसी तरक़ीब ढूंढ़नी चाहिए जिससे सभी को इस मुसीबत से सदा के लिए छुटकारा मिल जाए. आख़िर उसने एक तरक़ीब सोच ही ली.
खरगोश धीरे-धीरे आराम से शेर के घर की ओर चल पड़ा. जब वह शेर के पास पहुंचा तो बहुत देर हो चुकी थी.
भूख के मारे शेर का बुरा हाल हो रहा था. जब उसने स़िर्फ एक छोटे-से खरगोश को अपनी ओर आते देखा, तो ग़ुस्से से बौखला उठा और गरजकर बोला, “किसने तुम्हें भेजा है? एक तो पिद्दी जैसे हो, दूसरे इतनी देर से आ रहे हो. जिन बेवकूफों ने तुम्हें भेजा है मैं उन सबको ठीक करूंगा. एक-एक का काम तमाम न किया, तो मेरा नाम भी शेर नहीं.”
नन्हे खरगोश ने आदर से ज़मीन तक झुककर कहा, “महाराज, अगर आप कृपा करके मेरी बात सुन लें, तो मुझे या और जानवरों को दोष नहीं देंगे. वे तो जानते थे कि एक छोटा-सा खरगोश आपके भोजन के लिए पूरा नहीं पड़ेगा, इसलिए उन्होंने छह खरगोश भेजे थे, लेकिन रास्ते में हमें एक और शेर मिल गया. उसने पांच खरगोशों को मारकर खा लिया.”
यह सुनते ही शेर दहाड़कर बोला, “क्या कहा? दूसरा शेर? कौन है वह? तुमने उसे कहां देखा?”
“महाराज, वह तो बहुत ही बड़ा शेर है.” खरगोश ने कहा, “वह ज़मीन के अंदर बनी एक बड़ी गुफा में से निकला था. वह तो मुझे ही मारने जा रहा था. पर मैंने उससे कहा, सरकार, आपको पता नहीं कि आपने क्या अंधेर कर दिया है. हम सब अपने महाराज के भोजन के लिए जा रहे थे, लेकिन आपने उनका सारा खाना खा लिया है. हमारे महाराज ऐसी बातें सहन नहीं करेंगे. वे ज़रूर यहां आकर आपको मार डालेंगे.”
इसपर उसने पूछा, “कौन है तुम्हारा राजा?” मैंने जवाब दिया, “हमारा राजा जंगल का सबसे बड़ा शेर है.”
“महाराज, मेरे ऐसा कहते ही वह ग़ुस्से से लाल-पीला होकर बोला बेवकूफ इस जंगल का राजा स़िर्फ मैं हूं. यहां सब जानवर मेरी प्रजा हैं. मैं उनके साथ जैसा चाहूं वैसा कर सकता हूंं. जिस मूर्ख को तुम अपना राजा कहते हो उस चोर को मेरे सामने हाजिर करो. मैं उसे बताऊंगा कि असली राजा कौन है. महाराज इतना कहकर उस शेर ने आपको लिवाने के लिए मुझे यहां भेज दिया.”
खरगोश की बात सुनकर शेर को बड़ा ग़ुस्सा आया और वह बार-बार गरजने लगा. उसकी भयानक गरज से सारा जंगल दहलने लगा. “मुझे फौरन उस मूर्ख का पता बताओ.” शेर ने दहाड़कर कहा, “जब तक मैं उसे जान से नहीं मार दूंगा, मुझे चैन नहीं मिलेगा.” “बहुत अच्छा महाराज,” खरगोश ने कहा, “मौत ही उस दुष्ट की सज़ा है. अगर मैं और बड़ा और मज़बूत होता, तो मैं ख़ुद ही उसके टुकड़े-टुकड़े कर देता.”
“चलो, रास्ता दिखाओ” शेर ने कहा, “फौरन बताओ किधर चलना है?”
“इधर आइये महाराज, इधर,” खरगोश रास्ता दिखाते हुआ शेर को एक कुएं के पास ले गया और बोला, “महाराज, वह दुष्ट शेर ज़मीन के नीचे किले में रहता है. जरा सावधान रहिएगा. किले में छुपा दुश्मन ख़तरनाक होता है.”
“मैं उससे निपट लूंगा.” शेर ने कहा, “तुम यह बताओ कि वह है कहां?”
“पहले जब मैंने उसे देखा था तब तो वह यहीं बाहर खड़ा था. लगता है आपको आता देखकर वह किले में घुस गया है. आइए मैं आपको दिखाता हूं.”
खरगोश ने कुएं के नज़दीक आकर शेर से अंदर झांकने के लिए कहा. शेर ने कुएं के अंदर झांका, तो उसे कुएं के पानी में अपनी परछाईं दिखाई दी.
परछाईं को देखकर शेर ज़ोर से दहाड़ा. कुएं के अंदर से आती हुई अपनी ही दहाड़ने की गूंज सुनकर उसने समझा कि दूसरा शेर भी दहाड़ रहा है. दुश्मन को तुरंत मार डालने के इरादे से वह फौरन कुएं में कूद पड़ा.
कूदते ही पहले तो वह कुएं की दीवार से टकराया फिर धड़ाम से पानी में गिरा और डूबकर मर गया. इस तरह चतुराई से शेर से छुट्टी पाकर नन्हा खरगोश घर लौटा. उसने जंगल के जानवरों को शेर के मारे जाने की कहानी सुनाई. दुश्मन के मारे जाने की ख़बर से सारे जंगल में ख़ुशी फैल गई. जंगल के सभी जानवर खरगोश की जय-जयकार करने लगे

Wednesday, 16 January 2019

पुष्प की अभिलाषा - माखनलाल चतुर्वेदी | श्रेष्ठ हिंदी कवितायेँ | Fabulous Hindi Poems

पुष्प की अभिलाषा

चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूंथा जाऊं,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊं,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊं,
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढूं भाग्य पर इठलाऊं।
मुझे तोड लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढाने
जिस पथ जावें वीर अनेक

-माखनलाल चतुर्वेदी

Tuesday, 15 January 2019

पति कौन ? बेताल पच्चीसी - दूसरी कहानी |[Hindi Story]

पति कौन ? बेताल पच्चीसी - दूसरी कहानी |[Hindi Story]


यमुना के किनारे धर्मस्थान नामक एक नगर था। उस नगर में गणाधिप नाम का राजा राज करता था। उसी में केशव नाम का एक ब्राह्मण भी रहता था। ब्राह्मण यमुना के तट पर जप-तप किया करता था। उसकी एक पुत्री थी, जिसका नाम मालती था। वह बड़ी रूपवती थी। जब वह ब्याह के योग्य हुई तो उसके माता, पिता और भाई को चिन्ता हुई। संयोग से एक दिन जब ब्राह्मण अपने किसी यजमान की बारात में गया था और भाई पढ़ने गया था, तभी उनके घर में एक ब्राह्मण का लड़का आया। लड़की की माँ ने उसके रूप और गुणों को देखकर उससे कहा कि मैं तुमसे अपनी लडकी का ब्याह करूँगी। होनहार की बात कि उधर ब्राह्मण पिता को भी एक दूसरा लड़का मिल गया और उसने उस लड़के को भी यही वचन दे दिया। उधर ब्राह्मण का लड़का जहाँ पढ़ने गया था, वहाँ वह एक लड़के से यही वादा कर आया।

कुछ समय बाद बाप-बेटे घर में इकट्ठे हुए तो देखते क्या हैं कि वहाँ एक तीसरा लड़का और मौजूद है। दो उनके साथ आये थे। अब क्या हो? ब्राह्मण, उसका लड़का और ब्राह्मणी बड़े सोच में पड़े। दैवयोग से हुआ क्या कि लड़की को साँप ने काट लिया और वह मर गयी। उसके बाप, भाई और तीनों लड़कों ने बड़ी भाग-दौड़ की, ज़हर झाड़नेवालों को बुलाया, पर कोई नतीजा न निकला। सब अपनी-अपनी करके चले गये।

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दु:खी होकर वे उस लड़की को श्मशान में ले गये और क्रिया-कर्म कर आये। तीनों लड़कों में से एक ने तो उसकी हड्डियाँ चुन लीं और फकीर बनकर जंगल में चला गया। दूसरे ने राख की गठरी बाँधी और वहीं झोपड़ी डालकर रहने लगा। तीसरा योगी होकर देश-देश घुमने लगा।

एक दिन की बात है, वह तीसरा लड़का घूमते-घामते किसी नगर में पहुँचा और एक ब्राह्मणी के घर भोजन करने बैठा। जैसे ही उस घर की ब्राह्मणी भोजन परोसने आयी कि उसके छोटे लड़के ने उसका आँचल पकड़ लिया। ब्राह्मणी से अपना आँचल छुड़ता नहीं था। ब्राह्मणी को बड़ा गुस्सा आया। उसने अपने लड़के को झिड़का, मारा-पीटा, फिर भी वह न माना तो ब्राह्मणी ने उसे उठाकर जलते चूल्हें में पटक दिया। लड़का जलकर राख हो गया। ब्राह्मण बिना भोजन किये ही उठ खड़ा हुआ। घरवालों ने बहुतेरा कहा, पर वह भोजन करने के लिए राजी न हुआ। उसने कहा जिस घर में ऐसी राक्षसी हो, उसमें मैं भोजन नहीं कर सकता।

इतना सुनकर वह आदमी भीतर गया और संजीवनी विद्या की पोथी लाकर एक मन्त्र पढ़ा। जलकर राख हो चुका लड़का फिर से जीवित हो गया।

यह देखकर ब्राह्मण सोचने लगा कि अगर यह पोथी मेरे हाथ पड़ जाये तो मैं भी उस लड़की को फिर से जिला सकता हूँ। इसके बाद उसने भोजन किया और वहीं ठहर गया। जब रात को सब खा-पीकर सो गये तो वह ब्राह्मण चुपचाप वह पोथी लेकर चल दिया। जिस स्थान पर उस लड़की को जलाया गया था, वहाँ जाकर उसने देखा कि दूसरे लड़के वहाँ बैठे बातें कर रहे हैं। इस ब्राह्मण के यह कहने पर कि उसे संजीवनी विद्या की पोथी मिल गयी है और वह मन्त्र पढ़कर लड़की को जिला सकता है, उन दोनों ने हड्डियाँ और राख निकाली। ब्राह्मण ने जैसे ही मंत्र पढ़ा, वह लड़की जी उठी। अब तीनों उसके पीछे आपस में झगड़ने लगे।

इतना कहकर बेताल बोला, “राजा, बताओ कि वह लड़की किसकी स्त्री होनी चाहिए?”

राजा ने जवाब दिया, “जो वहाँ कुटिया बनाकर रहा, उसकी।”

बेताल ने पूछा, “क्यों?”

राजा बोला, “जिसने हड्डियाँ रखीं, वह तो उसके बेटे के बराबर हुआ। जिसने विद्या सीखकर जीवन-दान दिया, वह बाप के बराबर हुआ। जो राख लेकर रमा रहा, वही उसकी हक़दार है।”

राजा का यह जवाब सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा को फिर लौटना पड़ा और जब वह उसे लेकर चला तो बेताल ने तीसरी कहानी सुनायी।

Sunday, 13 January 2019

पंचतंत्र की कहानी- चापलूस मंडली (Panchtantra Story- Fawning Coterie)

 चापलूस मंडली 

Panchtantra Story
जंगल में एक शेर रहता था. उसके चार सेवक थे चील, भेड़िया, लोमड़ी और चीता. चील दूर-दूर तक उड़कर समाचार लाती. चीता राजा का अंगरक्षक था. सदा उसके पीछे चलता. लोमडी शेर की सेक्रेटरी थी. भेड़िया गृहमंत्री था. उनका असली काम तो शेर की चापलूसी करना था. इस काम में चारों माहिर थे. इसलिए जंगल के दूसरे जानवर उन्हें चापलूस मंडली कहकर पुकारते थे. शेर शिकार करता. जितना खा सकता वह खाकर बाकी अपने सेवकों के लिए छोड़ जाया करता था. उससे मज़े में चारों का पेट भर जाता. एक दिन चील ने आकर चापलूस मंडली को सूचना दी “भाईयों! सड़क के किनारे एक ऊंट बैठा है.”
भेड़िया चौंका “ऊंट! किसी काफिले से बिछड़ गया होगा.”
चीते ने जीभ चटकाई और कहा “हम शेर को उसका शिकार करने को राज़ी कर लें तो कई दिन दावत उड़ा सकते हैं.”
लोमड़ी ने घोषणा की “ शेर को राज़ी करना मेरा काम रहा.”
लोमड़ी शेर राजा के पास गई और अपनी ज़ुबान में मिठास घोलकर बोली “महाराज, दूत ने ख़बर दी है कि एक ऊंट सड़क किनारे बैठा है. मैंने सुना है कि मनुष्य के पाले जानवर के मांस का स्वाद ही कुछ और होता है. बिल्कुल राजा-महाराजाओं के काबिल. आप आज्ञा दें तो आपके शिकार का ऐलान कर दूं?”
शेर लोमड़ी की मीठी बातों में आ गया और चापलूस मंडली के साथ चील द्वारा बताई जगह जा पहुंचा. वहां एक कमज़ोर-सा ऊंट सड़क किनारे निढ़ाल बैठा था. उसकी आंखें पीली पड़ चुकी थीं. उसकी हालत देखकर शेर ने पूछा “क्यों भाई तुम्हारी यह हालात कैसे हुई?”
ऊंट कराहता हुआ बोला “जंगल के राजा! आपको नहीं पता इंसान कितना निर्दयी होता हैं. मैं एक ऊंटों के काफिले में एक व्यापार का माल ढो रहा था. रास्ते में मैं बीमार हो गया. माल ढोने लायक नहीं रहा, तो उसने मुझे यहां मरने के लिए छोड़ दिया. आप ही मेरा शिकार कर मुझे मुक्ति दीजिए.”
ऊंट की कहानी सुनकर शेर को दुख हुआ. अचानक उसके दिल में राजाओं जैसी उदारता दिखाने की ज़ोरदार इच्छा हुई. शेर ने कहा “ऊंट, तुम्हें कोई जंगली जानवर नहीं मारेगा. मैं तुम्हें अभय देता हूं. तुम हमारे साथ चलोगे और उसके बाद हमारे साथ ही रहोगे.”
चापलूस मंडली के चेहरे लटक गए. भेड़िया फुसफुसाया “ठीक है. हम बाद में इसे मरवाने की कोई तरक़ीब निकाल लेंगे. फिलहाल शेर का आदेश मानने में ही भलाई है.”
इस तरह ऊंट उनके साथ जंगल में आया. कुछ ही दिनों में हरी घास खाने व आराम करने से वह स्वस्थ हो गया. शेर राजा के प्रति ऊंट बहुत कृतज्ञ हुआ. शेर को भी ऊंट का निस्वार्थ प्रेम और भोलापन भाने लगा. ऊंट के स्वस्थ होने पर शेर की शाही सवारी ऊंट के ही आग्रह पर उसकी पीठ पर निकलने लगी. वह चारों को पीठ पर बिठाकर चलता.
एक दिन चापलूस मंडली के आग्रह पर शेर ने हाथी पर हमला कर दिया. दुर्भाग्य से हाथी पागल निकला. शेर को उसने सूंड से उठाकर पटक दिया. शेर उठकर बच निकलने में सफल तो हो गया, पर उसे बहुत चोट लगी.
शेर लाचार होकर बैठ गया. शिकार कौन करता? कई दिन न शेर ने कुछ खाया और न सेवकों ने. कितने दिन भूखे रहा जा सकता हैं? लोमड़ी बोली “हद हो गई. हमारे पास एक मोटा ताज़ा ऊंट है और हम भूखे मर रहे हैं.”
चीते ने ठंडी सांस भरी “क्या करें? शेर ने उसे अभयदान जो दे रखा है. देखो तो ऊंट की पीठ का कूबड़ कितना बड़ा हो गया है. चर्बी ही चर्बी भरी है इसमें.”
भेड़िए के मुंह से लार टपकने लगी “ऊंट को मरवाने का यही मौक़ा है दिमाग़ लड़ाकर कोई तरक़ीब सोचो.”
लोमड़ी ने धूर्त स्वर में सूचना दी “तरक़ीब तो मैंने सोच रखी है. हमें एक नाटक करना पड़ेगा.”
सब लोमड़ी की तरक़ीब सुनने लगे. योजना के अनुसार चापलूस मंडली शेर के पास गई. सबसे पहले चील बोली “महाराज, आपका भूखे पेट रहकर इस तरह मरना मुझसे नहीं देखा जाता. आप मुझे खाकर भूख मिटाइए.”
लोमड़ी ने उसे धक्का दिया “चल हट! तेरा मांस तो महाराज के दांतों में फंसकर रह
जाएगा. महाराज, आप मुझे खाइए.”
भेड़िया बीच में कूदा “तेरे शरीर में बालों के सिवा है ही क्या? महाराज! मुझे अपना भोजन बनाएंगे.”
अब चीता बोला “नहीं! भेड़िए का मांस खाने लायक़ नहीं होता. मालिक, आप मुझे खाकर अपनी भूख शांत कीजिए.”
चापलूस मंडली का नाटक अच्छा था. अब ऊंट को तो कहना ही पड़ा “नहीं महाराज, आप मुझे मारकर खा जाइए. मेरा तो जीवन ही आपका दान दिया हुआ है. मेरे रहते आप भूखों मरें, यह नहीं होगा.”
चापलूस मंडली यही तो चाहती थी. सभी एक स्वर में बोले “यही ठीक रहेगा, महाराज! अब तो ऊंट ख़ुद ही कह रहा है.”
चीता बोला “महाराज! आपको संकोच हो तो हम इसे मार दें?”
चीता व भेड़िया एकसाथ ऊंट पर टूट पड़ें और ऊंट मारा गया.
सीख- चापलूसों की दोस्ती हमेशा ख़तरनाक होती है.